अगर सोचिये तो जनम से मरण तक़,
घिरे हम सभी अपनी परछाइयों में।
उन्हे सीपियाँ हाथ कैसे लगगी,
उतरते नही वो जो गहराईयों मे।
सरलता की कीमत समझते नही वो,
जो उलझे रहे सिर्फ चतुराइयों में।
वो कद और स्वर से समझ आ गये थे,
मिले मुंह छुपाकर जो दंगाइयों में।
कुंए से निकलकर गिरे खाइयों में,
पिता चुप हुए तो फंसे भाइयों में।
ननद जी की किससे नज़र लड गई है,
यही खोज चलती है भौजाइयों मे।