Is there a way by which we can choose to be happy when we want ?
I recently came across an interesting article by Sitaram Gupta that brings out clearly that we can indeed control our happiness, since happiness is a reaction to our condition, not the condition itself. Here are some excerpts from the great article:
एक ही समय विशेष में किसी देश अथवा स्थान विशेष की स्थिति कुछ लोगों के लिए अच्छी होती है और कुछ लोगों के लिए बुरी। प्रत्येक व्यक्ति के मन में उस स्थिति विशेष की प्रतिक्रिया अलग-अलग प्रकार से होती है। एक ही घटना किसी को सुखद प्रतीत होती है तो किसी को दुखद।
सुख या दुख न तो भौतिक शरीर की अवस्था है, न लाभ-हानि की। न दुर्घटना से इसका संबंध है और न संबंधों की स्थिति से। सुख या दुख तो इन घटनाओं पर मन की प्रतिक्रिया है। मन गलती से भी अच्छा मान बैठे तो सुख, अन्यथा दुख। शरीर में चोट लग जाए तो पीड़ा होती है, दुख नहीं। आपको कोई रोग है। ऑपरेशन करना पड़ा तो पीड़ा भी हुई, लेकिन दुख नहीं, अपितु सुख ही हुआ कि चलो रोग से मुक्ति मिली।
ये भी जरूरी नहीं कि सुख-दुख किसी घटना पर ही आधारित हो। यदि सुख-दुख किसी घटना पर आधारित होता तो उस घटना के घटित होते ही फौरन सुख या दुख भी घटित हो जाता। वास्तव में सुख-दुख तब होता है, जब घटना का पता चलता है। कई बार किसी घटना के घटित होने पर इतनी देर बाद सूचना मिलती है कि सुखी या दुखी होने का कारण ही समाप्त हो चुका होता है। या किसी की मृत्यु या दुर्घटना की गलत सूचना पाकर भी हमारा मन दुखी होता है। घटना तो घटी नहीं, पर हम दुखी हो गए।
स्वामी चिन्मयानंद कहते हैं कि दुख एक मन:स्थिति है जो कि किसी व्यक्ति की पसंद की वस्तु के अभाव में उत्पन्न होती है। हम सुखी या दुखी होते हैं, क्योंकि हम हमेशा एक विशिष्ट अपेक्षित परिणाम ही चाहते हैं। जब अपेक्षित परिणाम मिलता है तो हम सुख का अनुभव करते हैं, अन्यथा दुख का। माइंडफुल मेडिटेशन के प्रवर्तक तिक न्यात हान्ह का कहना है कि हमारा मन एक हजारों चैनल वाले टीवी सेट के समान है और हम जिस चैनल को चालू करते हैं, उसी क्षण हम वही चैनल हो जाते हैं। क्रोध के चैनल का चुनाव करने पर हम क्रोधित तथा शांति और प्रसन्नता के चैनल का चुनाव करने पर हम शांत और प्रसन्नचित्त हो जाते हैं।
हम मन के किसी भी चैनल का चुनाव कर सकते हैं। स्मृति एक चैनल है, तो विस्मृति भी एक चैनल है। शांति एक चैनल है, तो अशांति भी एक चैनल है। करुणा अथवा मैत्री एक चैनल है तो राग अथवा द्वेष भी एक चैनल है। मन की किसी भी एक स्थिति से दूसरी स्थिति में परिवर्तन उतना ही सरल है जितना एक चैनल से दूसरे चैनल में परिवर्तन। रिमोट का बटन दबाइए और दुख के चैनल को बंद करके सुख के चैनल को चालू कर दीजिए। यह उतना ही सरल है जितना एक फिल्म के चैनल से खेल के चैनल में परिवर्तन। लेकिन आप की उँगलियाँ चंचल हैं। बार-बार दुख के चैनल का बटन दब जाता है। हम चाहें तो दुख के चैनल को हमेशा के लिए लॉक कर सकते हैं। जरूरत है तो थोड़े अभ्यास की। मन पर नियंत्रण की। सही बटन न दबा पाने के कारण ही हम उम्र भर वो चैनल देखते रहने को विवश हैं। मन की गलत कंडीशनिंग या नकारात्मक दृष्टिकोण के कारण ही हम आजीवन दुखी बने रहते हैं। जबकि इसके विपरीत कुछ लोग सदैव सुखी रहते हैं। यथार्थ में ज्यादातर दुख मनगढ़ंत और काल्पनिक होते हैं।
- With thanks from Sitaram Gupta
I recently came across an interesting article by Sitaram Gupta that brings out clearly that we can indeed control our happiness, since happiness is a reaction to our condition, not the condition itself. Here are some excerpts from the great article:
एक ही समय विशेष में किसी देश अथवा स्थान विशेष की स्थिति कुछ लोगों के लिए अच्छी होती है और कुछ लोगों के लिए बुरी। प्रत्येक व्यक्ति के मन में उस स्थिति विशेष की प्रतिक्रिया अलग-अलग प्रकार से होती है। एक ही घटना किसी को सुखद प्रतीत होती है तो किसी को दुखद।
सुख या दुख न तो भौतिक शरीर की अवस्था है, न लाभ-हानि की। न दुर्घटना से इसका संबंध है और न संबंधों की स्थिति से। सुख या दुख तो इन घटनाओं पर मन की प्रतिक्रिया है। मन गलती से भी अच्छा मान बैठे तो सुख, अन्यथा दुख। शरीर में चोट लग जाए तो पीड़ा होती है, दुख नहीं। आपको कोई रोग है। ऑपरेशन करना पड़ा तो पीड़ा भी हुई, लेकिन दुख नहीं, अपितु सुख ही हुआ कि चलो रोग से मुक्ति मिली।
ये भी जरूरी नहीं कि सुख-दुख किसी घटना पर ही आधारित हो। यदि सुख-दुख किसी घटना पर आधारित होता तो उस घटना के घटित होते ही फौरन सुख या दुख भी घटित हो जाता। वास्तव में सुख-दुख तब होता है, जब घटना का पता चलता है। कई बार किसी घटना के घटित होने पर इतनी देर बाद सूचना मिलती है कि सुखी या दुखी होने का कारण ही समाप्त हो चुका होता है। या किसी की मृत्यु या दुर्घटना की गलत सूचना पाकर भी हमारा मन दुखी होता है। घटना तो घटी नहीं, पर हम दुखी हो गए।
स्वामी चिन्मयानंद कहते हैं कि दुख एक मन:स्थिति है जो कि किसी व्यक्ति की पसंद की वस्तु के अभाव में उत्पन्न होती है। हम सुखी या दुखी होते हैं, क्योंकि हम हमेशा एक विशिष्ट अपेक्षित परिणाम ही चाहते हैं। जब अपेक्षित परिणाम मिलता है तो हम सुख का अनुभव करते हैं, अन्यथा दुख का। माइंडफुल मेडिटेशन के प्रवर्तक तिक न्यात हान्ह का कहना है कि हमारा मन एक हजारों चैनल वाले टीवी सेट के समान है और हम जिस चैनल को चालू करते हैं, उसी क्षण हम वही चैनल हो जाते हैं। क्रोध के चैनल का चुनाव करने पर हम क्रोधित तथा शांति और प्रसन्नता के चैनल का चुनाव करने पर हम शांत और प्रसन्नचित्त हो जाते हैं।
हम मन के किसी भी चैनल का चुनाव कर सकते हैं। स्मृति एक चैनल है, तो विस्मृति भी एक चैनल है। शांति एक चैनल है, तो अशांति भी एक चैनल है। करुणा अथवा मैत्री एक चैनल है तो राग अथवा द्वेष भी एक चैनल है। मन की किसी भी एक स्थिति से दूसरी स्थिति में परिवर्तन उतना ही सरल है जितना एक चैनल से दूसरे चैनल में परिवर्तन। रिमोट का बटन दबाइए और दुख के चैनल को बंद करके सुख के चैनल को चालू कर दीजिए। यह उतना ही सरल है जितना एक फिल्म के चैनल से खेल के चैनल में परिवर्तन। लेकिन आप की उँगलियाँ चंचल हैं। बार-बार दुख के चैनल का बटन दब जाता है। हम चाहें तो दुख के चैनल को हमेशा के लिए लॉक कर सकते हैं। जरूरत है तो थोड़े अभ्यास की। मन पर नियंत्रण की। सही बटन न दबा पाने के कारण ही हम उम्र भर वो चैनल देखते रहने को विवश हैं। मन की गलत कंडीशनिंग या नकारात्मक दृष्टिकोण के कारण ही हम आजीवन दुखी बने रहते हैं। जबकि इसके विपरीत कुछ लोग सदैव सुखी रहते हैं। यथार्थ में ज्यादातर दुख मनगढ़ंत और काल्पनिक होते हैं।
- With thanks from Sitaram Gupta
Not sure I buy it hundred percent, grieving is essential at times. This TV channel analogy sounds analogous to taking "happy pills" and "Turn on, tune in, drop out" (ancient hippy slogan :-) ). Mr. Kabir has also expressed himself on similar issues
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सुखिया ढ़ूंढ़त मै फिरूँ, सुखिया मिलै न कोय ।
जाके आगे दुख कहूँ, पहिले ऊठै रोय ॥
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भूप दुखी अवधूत दुखी, दुखी रंक विपरीत ।
कहैं कबीर ये सब दुखी, सुखी संत मन जीत ॥
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