सोच के हाथों में भाग्य की डोर



The article below says that we can control our destiny by our thoughts. In summary, if we want to change our fortune, we must work on our thinking because:
  • Our thoughts control our words
  • Our words decide our deeds
  • Over time, our actions are formed into habits
  • Sum total of our habits makes our character
  • And finally, it is our character that determines our destiny



अक्सर लोग कहते हैं कि हम अमीर बनना चाहते हैं, पर सचाई यह है कि कोई भी अमीर बनना नहीं चाहता। अगर हम अपनी मानसिकता में अमीर नहीं बनते, तो बाहर से अमीर नहीं बन सकते। बाहर से अमीर बनने के लिए सबसे पहले मानसिक स्तर पर अमीर बनना होगा।

वेदांत का नियम है, जैसा सोचते हैं, वैसा बनते हैं। यदि हम मन से यह सोच लेते हैं कि हम गरीब हैं, बेकार हैं, कुछ नहीं कर सकते तो हम सदा गरीब और बेकार ही बने रहेंगे। यदि सोचते हैं कि हम अमृत पुत्र हैं, उस परमसत्ता की संतान हैं तो फिर हम दर-दर की ठोकरें क्यों खाएंगे?

इसे एक उदाहरण से समझिए। हम अपने बच्चे के ऑफिस में उसको बिना बताए जाते हैं और वह अपने बॉस के सामने छुट्टी अथवा प्रमोशन के लिए गिड़गिड़ा रहा है, तो देखकर हमें कैसा लगेगा? बहुत बुरा। इसी तरह, हम उस परमपिता की संतान है; पर स्वयं को दीन-हीन बनाया हुआ है, तो परमात्मा को कैसा लगेगा?

संतान अपने माता-पिता के अनुरूप ही होती है। यदि पिता 'गुप्ता' है तो उसकी संतान भी 'गुप्ता' ही कहलाएगी। हम प्रभु की संतान हैं तो हम क्या हुए? प्रभु पूर्ण हैं तो प्रभु का अंश भी पूर्ण ही होगा। तो हम अपने आप को बेचारा, लाचार, दास क्यों समझें?

यदि हम कुछ प्राप्त करना चाहते हैं तो सबसे पहले मानसिक स्तर पर हमें यह निश्चय करना चाहिए कि हां, मैं यह प्राप्त कर सकता हूं। पहले मन में सकारात्मक विचार का आना जरूरी है, क्योंकि विचार से ही इच्छा का सृजन होता है और इच्छा ही कार्यरूप में परिणत होती है।

यदि दिमाग में पहले ही नकारात्मक विचार आ गया कि नहीं हो पाएगा तो वह नहीं होगा। मान लीजिए, लकड़ी का एक फट्टा जमीन पर रखा जाए, उस फट्टे पर चलने के लिए कहा जाए, तो सब लोग आसानी से चल पाएंगे। उतना ही चौड़ा फट्टा दो बड़ी इमारतों के ऊपर रखा जाए और उस पर चलने के लिए कहा जाए तो क्या होगा?

एक बार मन में आ गया कि हम इस पर नहीं चल पाएंगे, नीचे गिर जाएंगे, तो फिर फट्टे पर नहीं ही चल पाएंगे।
हमें आध्यात्मिक अथवा भौतिक स्तर पर कुछ भी प्राप्त करना है तो सर्वप्रथम दिमाग में विचार डालने की जरूरत है। इसके बदले यदि सोचें कि हम तो बीमार हैं, हमारे कंधों में, घुटनों में, पीठ में -सारे शरीर में दर्द रहता है, तो फिर बीमार ही रहेंगे। वास्तविकता यह है कि शरीर विचार नहीं बनाते, अपितु विचारों से शरीर बनता है। यदि कोई व्यक्ति वैचारिक स्तर पर राजसिक है, बहुत ऊर्जावान है तो शारीरिक स्तर पर भी वह स्फूतिर्वान रहेगा, आलसी नहीं।

आजकल बाजार में अंग्रेजी की एक पुस्तक बहुत प्रसिद्ध हो रही है जिसका नाम है -द सीक्रेट। इसमें यही बताने की कोशिश की गई है कि आपके विचार ही आपके भविष्य का आधार हैं। यही बात गीता के 7 वें अध्याय के 21वें श्लोक में कही गई है। कृष्ण कहते हैं, जो जो भक्त जिस विचार को श्रद्धा से प्राप्त करना चाहता है, उस उस श्रद्धा वाले व्यक्ति के विचारों को मैं पूर्ण करता हूँ।

इसलिए भाग्य को बदलने के लिए अपने विचारों को सुधारना होगा, क्योंकि-
हमारे विचार ही शब्दों में परिवर्तित होते हैं।
हमारे शब्द ही कर्मों में परिणत होते हैं।
हमारे कर्म ही हमारी आदत बनते हैं।
हमारी आदतों से ही हमारा चरित्र बनता है।
हमारा चरित्र ही हमारा भाग्य निर्माता है।

The Best Way to Win an Argument


There are times when we have difference of opinion with our friends and family members, and we get into an argument. We really feel bad when we lose such an argument. How can we master the art of articulating our point in a way so that we end up winning the argument? My experience is that it is best to avoid such arguments.

According to Dale Carnegie, “The only way to get the best of an argument is to avoid it.” When we get two egos wrapped up in an argument, both sides defend their positions desperately, and it does not improve relationships. You are more likely to feel negative feelings towards each other long after the argument is over, no matter whether you win it or not. And so you both wallow in negativity and you both lose. When possible, just avoiding unnecessary arguments is a win-win solution.

But you may say, "how can I give in when I know that I am right and the other person is wrong? He is just not able to see the fact clearly, and that's what the argument is about".

Stephen Covey talks about our paradigm, our way of looking at things. Each of us look at the world through our own glasses, and perceive the reality differently from others. So, it is quite natural that two people may differ about their view of the same thing. None of them is right or wrong, it is just a difference of paradigm. The following classic story illustrates this point very well:

When six blind men are asked what an elephant looks like, they come up with different views by feeling different parts of the elephant's body.
  1. One blind man feels a leg and says that the elephant is like a pillar
  2. One man feels the tail and says that the elephant is like a rope
  3. One feels the trunk and says that the elephant is like a tree branch
  4. One feels the ear and says the elephant is like a hand fan
  5. One feels the belly and says the elephant is like a wall
  6. One feels the tusk and says the elephant is like a solid pipe
A wise man explains to them, "All of you are right. The reason every one of you is telling it differently is because each one of you touched the different part of the elephant. So, actually the elephant has all the features you mentioned."
What is the point of having an argument when I know that my knowledge about the truth is just partial?

Principle of Anekant in Jainism also talks about this fact that the truth can be stated in different ways, and teaches us the way of living in harmony with people who have different belief systems.

In a bitter argument, the wiser person is usually wrong, as he did not utilize his wisdom to avoid the argument.