The King's Speech - a landmark for meaningful cinema

The King's Speech is all over the news for sweeping the Oscars this year. I went to see this movie today and I really liked it. It is certainly a great movie about a touchy subject. It uses real-life story of King George VI's struggle with his speech problem to create sensitivity about people who stammer.

The King was so badly affected by his inability to speak fluently that every public speech or radio broadcast used to be a nightmare for him. However, he overcame his difficulty with determination, sustained effort, and help from an Australian speech therapist.

This movie assures every young person with speaking difficulty that it is possible for him to get over it, and it is useful education for his near and dear ones.

There have been a number of great movies in the past that have given sensitive treatment to different challenging conditions. Black, Sparsh, Tare Zamin Par, Shor, Koshish are example of some of the great Hindi movies on the subject. But the poor stammerer has remained the butt of jokes and caricatured badly in most movies.

Every one in a hundred persons faces speech dis-fluency. It is very likely that most of us are familiar with someone in the family, or has a friend who faces trouble every time he opens his mouth. We see him struggle with trivial tasks like saying his name, or reciting a text. However, most of us know very little about why it happens, how to react to it, and what we can do to help the person who is facing it.

A typical stammerer himself makes all attempts (in vain) to sweep his trouble under the carpet and hide his difficulties, which makes the matters worse for him. Since he does not talk about it, how will those around him know what he is going through?

That's why this movie has done a great job to bring this issue out from under the carpet and promote healthy discussion and education about it. Movies like this will go a long way to shape the attitude of society towards people who stammer.

I also read the book on the same subject with a lot of interest. The book has much more detail taken from the diaries of Lionel Logue - the man who helped the king with his speech.

Three years after I wrote this post, I was moved to see very sensitive portrayal of stutter in a blockbuster Hindi film, and who could have done it better than my favorite Amir Khan in the recent super hit Dhoom 3?

Silence is Golden


Sheetal Mehra has a very interesting way of making a point about the importance of pause. 

आज की व्यस्त दुनिया में हम पर चारों तरफ से आवाजों का हमला होता रहता है - फोन की घंटियां, बीपर, आपस में बहस करते सहयोगी। ऐसी परिस्थिति में चुप्पी बड़ी अजीब लगती है और मजबूरन हमारा ध्यान उसकी तरफ खिंचता है। 
अक्सर चुप्पी को हम कम करके आंकते हैं, उसका इस्तेमाल भी बहुत कम करते हैं। लेकिन इसका कई तरह से इस्तेमाल हो सकता है और यह निर्भर करता है उसकी लंबाई पर : 
  • बिजनेस मीटिंग के दौरान हल्का सा पॉज आप को अपनी भावनाओं पर काबू पाने का मौका देता है। खासतौर पर जब आप किसी नाराज क्लाइंट से बात कर रहे हों या किसी 'खराब' ईमेल का जवाब दे रहे हों। 
  • बिजनेस लीडर कमरे या मीटिंग हाल में घुसते समय चुप्पी का इस्तेमाल अपना असर जमाने के लिए करते हैं। साथ ही वह ऐसा करके खुद को माहौल के हिसाब से ढाल रहे होते हैं। 
  • मीटिंग्स के दौरान भी बिजनेस और पॉलिटिकल लीडर भी अक्सर पॉज लेते हैं। इससे यह जाहिर होता है कि वे गंभीरता से सोच समझकर बोल रहे हैं, हड़बड़ी में कोई फैसला नहीं ले रहे। 
  • एक वक्ता के लिए यह जानना बहुत जरूरी है कि किसी वाक्य के बीच में एक विशेष स्थान के पहले या बाद में थोड़ा से रुकने का बड़ा नाटकीय असर होता है। इससे बातचीत की एकरसता टूटती है साथ ही आपको सांस लेने का मौका मिलता है। दूसरी तरफ श्रोताओं को भी आपकी कही बात समझने का अवसर मिलता है। किसी कमिडियन से पूछिए कि लोगों को हंसाने में सही समय पर पॉज लेने की कितनी अहमियत है। - जब आप अपने क्लाइंट को कुछ बेचने की कोशिश कर रहे होते हैं उस समय भी पॉज लेने से आपके क्लांइट को डील पर सोचने का टाइम मिल जाता है। 
  • किसी क्लाइंट को डिस्काउंट देते समय पॉज लेने से लगता है कि आपने सोच समझकर इस फैसले पर पहुंचे हैं। 
  • दूसरे समाज या संस्कृति के लोगों से बातचीत करते समय भी चुप्पी का विशेष महत्व है। मसलन, हम भारतीय लोग तेज बोलते हैं इसलिए हमें बीच बीच में पॉज लेने की अहमियत समझनी चाहिए। वहीं जापानी लोग चुप्पी का असरदार तरीके से इस्तेमाल करते हैं। लेकिन अमेरिकन लोगों को बातचीत में गैप पसंद नहीं है। कई एशियाई सभ्यताओं में दूसरे की चुप्पी को नजरअंदाज करना बुरा समझा जाता है। 
  • जब आप अपना परिचय दे रहे होते हैं या फिर वॉयसमेल छोड़ते समय अपने नाम और मेसेज के बीच में थोड़ा गैप रखने से दूसरों को आपका नाम और संदेश ठीक से समझ आता है।

Positive thoughts are like good seeds


A Great thought by Sitaram Gupta:

एक किसान फसल काटने के बाद सबसे पहले जो काम करता है, वह है अगली फसल के लिए उनमें से सर्वोत्तम बीजों का चुनाव करना और उन्हें सुरक्षित भंडार घर में रख देना। किसान की तरह हमें भी अपने मन में केवल सर्वोत्तम विचारों का ही भंडारण करना चाहिए। जिस प्रकार उत्तम बीजों से उत्तम फसल पाई जा सकती है, उसी प्रकार सकारात्मक सोच रूपी बीज ही उचित अवसर पाकर व्यक्ति तथा समाज के लिए उत्तम सृजन करते हैं।

मनुष्य के मन में हर क्षण असंख्य विचार उत्पन्न होते रहते हैं, जिनमें से कुछ विचार सकारात्मक या उपयोगी होते हैं तो कुछ नकारात्मक या अनुपयोगी। वैसे ज्यादातर विचार निरर्थक ही होते हैं। यदि वे सब विचार प्रभावी होने लगें तो हमारा जीवन नरक बन जाएगा। इसलिए विचारों के चयन में भी हमें सदा सचेत रहना चाहिए। हमें प्रयास करके सकारात्मक व उपयोगी विचारों का चयन कर मन के हवाले कर देना चाहिए।

कोई व्यक्ति क्या सोचता है, यह महत्वपूर्ण है, न कि क्या करता है अथवा कैसा दिखता है। वास्तव में व्यक्ति क्या कर रहा है अथवा कैसा दिख रहा है, यह उसकी पूर्व सोच का ही परिणाम है। उसकी पिछली सोच ने ही उसके वर्तमान का निर्माण किया है। चाहे व्यक्ति का भौतिक शरीर हो, उसकी वर्तमान आर्थिक स्थिति हो, उसका जीवन के प्रति दृष्टिकोण हो या वर्तमान मनोवृत्ति -ये सब उसकी पिछली सोच से निर्मित हुई चीजें हैं। यही कर्मफल का सिद्धांत है। जैसा बोओगे वैसा काटोगे।

सोच भी वह बीज ही तो है, जिसकी फसल सोचने वाले को कर्मफल के रूप में काटनी पड़ती है। अच्छी सोच रूपी बीज बोओगे तो उसी के अनुरूप अच्छे व्यक्तित्व, अच्छे स्वास्थ्य, अच्छे संस्कार और सुख-समृद्धि रूपी अच्छी फसल काट पाओगे। अपनी सोच को बदल कर उसे सकारात्मकता प्रदान कर हम अपने सुनहरे भविष्य का निर्माण कर सकते हैं तथा विकारों से मुक्ति पा सकते हैं, इसमें संदेह नहीं। दूसरे हमारे बारे में क्या सोचते हैं, इसका हम पर कोई असर नहीं पड़ता, बल्कि हमारी अपनी सोच ही हमें और दूसरों से हमारे व्यवहार को निर्धारित करती है।

हर बार हर किसान के खेत में अच्छी फसल नहीं होती। कई बार फसल कमजोर होती है तो कई बार बीजों में कीड़े वगैरह लग जाते हैं। ऐसे में वो बड़ी समझदारी से काम लेता है। कोई किसान घुन लगे या कमजोर बीज कभी नहीं बोता। अगले साल बोने के लिए वह दूसरों से अच्छे बीज मांग कर लाता है।

विचारों का उद्गम स्थल है हमारा मन। अत: मन पर नियंत्रण द्वारा हम गलत विचारों पर रोक लगा सकते हैं तथा अच्छे विचारों से मन को आप्लावित कर सकते हैं। यदि जीवन रूपी बगिया को सुंदर बनाना है, उसे रंगों से सराबोर करना है, तो मन रूपी बगिया में हमेशा सकारात्मक सोच के पौधे लगाइए।

प्राय : कहा जाता है कि पुरुषार्थ से ही कार्य सिद्ध होते हैं , मन की इच्छा से नहीं। बिल्कुल ठीक बात है। लेकिन मनुष्य पुरुषार्थ कब करता है और किसे कहते हैं पुरुषार्थ ? पहली बात तो यह है कि मन की इच्छा के बिना पुरुषार्थ भी असंभव है। मनुष्य में पुरुषार्थ या हिम्मत अथवा प्रयास करने की इच्छा भी किसी न किसी भाव से ही उत्पन्न होती है। और सभी भाव मन द्वारा उत्पन्न तथा संचालित होते हैं। अत : मन की उचित दशा अथवा सकारात्मक विचार ही पुरुषार्थ को संभव बनाता है। पुरुषार्थ के लिए उत्प्रेरक तत्व मन ही है।

जिस प्रकार वृक्ष के उगने के लिए बीज अनिवार्य है , उसी प्रकार हर कार्य के मूल में एक बीज होता है और वह है विचार। जैसा बीज , वैसा पौधा तथा जैसा विचार वैसा कर्म। मनुष्य हर कर्म किसी न किसी विचार के वशीभूत ही करता है। जैसे विचार वैसे कर्म तथा जैसे कर्म वैसा जीवन। विचार ही हमारे जीवन की दशा और दिशा निर्धारित करते हैं।