दो गाँवो के बीच एक नदी थी। नदी किनारे एक वृक्ष के नीचे एक संत कईं दिनों से माला फेरते हुऐ अखंड जाप मे लीन थे। उनका संकल्प था एक लाख मालाओ को पूरा करना।
उस गाँव की एक अहीर बाला दूध बेचने के लिये रोजाना दूसरे गाँव जाती थी। नदी किनारे आकर अपने दूध का डिब्बा खोलती और उसमें से एक लोटा दूध निकालती। दूध के डिब्बे में एक लोटा पानी मिलाती और नदी पार के गाँव की ओर चल पड़ती दूध बेचने।
यह उसकी रोज की दिनचर्या थी।
संत इस अहीर बाला की गतिविधियों को कई दिनो तक आश्चर्य से देखते रहे। एक दिन उनसे रहा नहीं गया और उन्होने बाला से पूछा,
"बेटी सुनो!"
"हाँ! बाबा। बोलिये ना।"
"बुरा न मानो तो तुमसे एक बात पूछना चाहता हूँ।"
"पूछिये ना बाबा। आपकी बात भी कोई बुरा मानने की होती है क्या?"
"बेटी! मैं रोज देखता हूँ। तुम यहाँ आती हो। दूध के डिब्बे में से एक लोटा दूध निकालती हो और डिब्बे में एक लोटा पानी मिला देती हो? क्यों करती हो तुम ऐसा?"
लड़की ने नज़रें नीची कर ली। कहा, "बाबा! मैं जिस गाँव में दूध बेचने जाती हूँ ना, वहाँ मेरी सगाई पक्की हुई है। मेरे मंगेतर वहीं रहते हैं। जबसे सगाई हुई है मैं रोज एक लोटा दूध उन्हें लेजाकर देती हूँ। दूध कम न पड़े इसलिये एक लोटा पानी डिब्बे में मिला देती हूँ।"
"पगली तू ये क्या कर रही है? कभी हिसाब भी लगाया है तूने? कितना दूध अपने मंगेतर को दिया?"
"लड़की नें नज़रें तनिक उठाते हुऐ उत्तर दिया, "बाबा! जब सारा जीवन ही उसे सौंपने का फैसला हो गया तो फिर हिसाब क्या लगाना? जितना दे सकी दिया, जितना दे सकूंगी देती रहूंगी।"
उस लडकी के अपने मंगेतर के प्रति भाव देख संत के हाथ से माला छूट कर नदी में जा गिरी। उन्होने तुरंत उस अहीर बाला के पाँव पकड़ लियेे और कहा बेटी! तूने तो मेरी आँखें ही खोल दी। माला का हिसाब लगाते लगाते मैंने सारा जीवन व्यर्थ कर दिया। जब सारा जीवन ही उसे सौंप दिया तो क्या हिसाब रखना? कितनी माला फेर ली?
यही है सार - सच्चे प्रेम, श्रद्धा, लगन, भक्ति और निष्ठा का - इसमे हिसाब-किताब का क्या काम?
उस गाँव की एक अहीर बाला दूध बेचने के लिये रोजाना दूसरे गाँव जाती थी। नदी किनारे आकर अपने दूध का डिब्बा खोलती और उसमें से एक लोटा दूध निकालती। दूध के डिब्बे में एक लोटा पानी मिलाती और नदी पार के गाँव की ओर चल पड़ती दूध बेचने।
यह उसकी रोज की दिनचर्या थी।
संत इस अहीर बाला की गतिविधियों को कई दिनो तक आश्चर्य से देखते रहे। एक दिन उनसे रहा नहीं गया और उन्होने बाला से पूछा,
"बेटी सुनो!"
"हाँ! बाबा। बोलिये ना।"
"बुरा न मानो तो तुमसे एक बात पूछना चाहता हूँ।"
"पूछिये ना बाबा। आपकी बात भी कोई बुरा मानने की होती है क्या?"
"बेटी! मैं रोज देखता हूँ। तुम यहाँ आती हो। दूध के डिब्बे में से एक लोटा दूध निकालती हो और डिब्बे में एक लोटा पानी मिला देती हो? क्यों करती हो तुम ऐसा?"
लड़की ने नज़रें नीची कर ली। कहा, "बाबा! मैं जिस गाँव में दूध बेचने जाती हूँ ना, वहाँ मेरी सगाई पक्की हुई है। मेरे मंगेतर वहीं रहते हैं। जबसे सगाई हुई है मैं रोज एक लोटा दूध उन्हें लेजाकर देती हूँ। दूध कम न पड़े इसलिये एक लोटा पानी डिब्बे में मिला देती हूँ।"
"पगली तू ये क्या कर रही है? कभी हिसाब भी लगाया है तूने? कितना दूध अपने मंगेतर को दिया?"
"लड़की नें नज़रें तनिक उठाते हुऐ उत्तर दिया, "बाबा! जब सारा जीवन ही उसे सौंपने का फैसला हो गया तो फिर हिसाब क्या लगाना? जितना दे सकी दिया, जितना दे सकूंगी देती रहूंगी।"
उस लडकी के अपने मंगेतर के प्रति भाव देख संत के हाथ से माला छूट कर नदी में जा गिरी। उन्होने तुरंत उस अहीर बाला के पाँव पकड़ लियेे और कहा बेटी! तूने तो मेरी आँखें ही खोल दी। माला का हिसाब लगाते लगाते मैंने सारा जीवन व्यर्थ कर दिया। जब सारा जीवन ही उसे सौंप दिया तो क्या हिसाब रखना? कितनी माला फेर ली?
यही है सार - सच्चे प्रेम, श्रद्धा, लगन, भक्ति और निष्ठा का - इसमे हिसाब-किताब का क्या काम?
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