जहाँ न जाए रवि, वहां जाए कवि



मित्रों - आपको मेरी ओर से विश्व कविता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
  
यह सच है कि कवि हमें एक ऐसे कल्पना के संसार में ले जाता है जिसे हम कभी वास्तविकता में नहीं देख सकते | हिंदी साहित्य का यह सौभाग्य रहा है की इसे अत्यंत विलक्षण प्रतिभा वाले अनेक कवियों का साथ मिला है | सबकी विभिन्न शैली है और सभी ने अलग अलग विषयों पर लिखा हैं | परन्तु इन सभी में क्या कोई apples–to–apples comparison संभव है ?

बचपन में मै धर्मयुग पत्रिका को बड़ी रूचि से पढता था, और इसमें 1976 की होली में प्रसिद्ध कवि ओम प्रकाश आदित्य की एक रचना ने मुझे बड़ा प्रभावित किया | इसमें उन्होंने कल्पना की कि एक उदास रमणी छज्जे पर बैठी है, जिसकी मुखमुद्रा को देखकर ऐसा लगता है, जैसे वह छज्जे से कूद कर आत्महत्या करने वाली हो। तभी वहीँ  से हिन्दी के बारह प्रसिद्ध कविगण एक साथ गुज़र रहे है, जो कि किसी कवि सम्मलेन से आ रहे थे | इस रचना में आदित्य जी ने एक तस्वीर खींच दी है की इन कवियों ने इस स्थिति में क्या कहा – अब आप ही सोचिये, क्या यह घटना वास्तविकता में कभी संभव है? बहुत सुन्दर रचना है - आनंद लीजिये |

मैथिली शरण गुप्त
अट्टालिका पर एक रमणी अनमनी सी है अहो।
किस वेदना के भार से संतप्त हो देवी कहो?
धीरज धरो संसार में किसके नहीं दुर्दिन फिरे‚
हे राम रक्षा कीजिये अबला न भूतल पर गिरे।

सुमित्रानंदन पंत

स्वर्ण–सौध के रजत शिखर पर, चिर नूतन चिर सुंदर प्रतिपल
उन्मन–उन्मन‚ अपलक–नीरव, शशि–मुख पर कोमल कुंतल–पट
कसमस–कसमस चिर यौवन–घट, पल–पल प्रतिपल
छल–छल करती निर्मल दृग–जल, ज्यों निर्झर के दो नीलकमल
यह रूप चपल ज्यों धूप धवल, अतिमौन‚ कौन? रूपसि‚ बोलो‚
प्रिय‚ बोलो न?

रामधारी सिंह दिनकर
दग्ध हृदय में धधक रही, उत्तप्त प्रेम की ज्वाला।
हिमगिरि के उत्स निचोड़‚ फोड़, पाताल बनो विकराला।
ले ध्वंसों के निर्माण त्राण से, गोद भरो पृथ्वी की।
छत पर से मत गिरो, गिरो अंबर से वज्र–सरीखी।

काका हाथरसी
गोरी बैठी छत्त पर‚ कूदन को तैयार
नीचे पक्का फर्श है‚ भली करे करतार
भली करे करतार‚ न दे दे कोई धक्का
ऊपर मोटी नार कि नीचे पतरे कक्का
कह काका कविराय‚ अरी! मत आगे बढ़ना
उधर कूदना‚ मेरे ऊपर मत गिर पड़ना

गोपाल प्रसाद व्यास
छत पर उदास क्यों बैठी है‚ तू मेरे पास चली आ री।
जीवन का सुख–दुख कट जाए‚ कुछ मैं गाऊं‚ कुछ तू गा री।
तू जहां कहीं भी जाएगी‚ जीवन–भर कष्ट उठाएगी।
यारों के साथ रहेगी तो‚ मथुरा के पेड़े खाएगी।

श्यामनारायण पांडेय
ओ घमंड मंडिनी‚ अखंड खंड–खंडिनी।
वीरता विमंडिनी‚ प्रचंड चंड चंडिनी।
सिंहनी की वान से‚ आन–बान–शान से।
मान से‚ गुमान से‚ तुम गिरो मकान से।
तुम डगर–डगर गिरो, तुम नगर–नगर गिरो।
तुम गिरो‚ अगर गिरो‚ शत्रु पर मगर गिरो।

गोपाल प्रसाद नीरज
हो न उदास रूपसी‚ तू मुस्कुराती जा‚
मौत में भी जिंदगी के फूल खिलाती जा।
जाना तो हर एक को एक दिन जहान से‚
जाते–जाते मेरा एक गीत गुनगुनाती जा।

महाकवि निराला
यह मन्दिर की पूजा संस्कृति का शिलान्यास
इसके आँचल में चिति की लीला का विलास
यह मर्माहत हो करे कूद कर आत्मघात
विकसित मानव वक्षस्थल पर धिक् वज्रपात
नर के सुख हित रक्षित अधिकारों के उपाय
युग-युग से नारी का दुख ही पर्याय हाय
बीतेगी, रे, कब बीतेगी यह अन्धरात
अबला कब होगी सबला कब होगा प्रभात।

भवानी प्रसाद मिश्र
गिरो!
तुम्हें गिरना है तो ज़रूर गिरो!
पर कुछ अलग ढंग से गिरो!
गिरने के भी कई ढंग होते हैं
गिरो!
जैसे बूंद गिरती है किसी बादल से
और बन जाती है मोती
बखूबी गिरो हँसते-हँसते मेरे दोस्त
जैसे सीमा पर गोली खाकर सिपाही गिरता है
सुबह की पत्तियों पर ओस की बूंद जैसी गिरो!
गिरो!
पर ऐसे मत गिरो
जैसे किसी की आँख से कोई गिरता है
किसी ग़रीब की झोंपड़ी पर मत गिरो
बिजली की तरह गिरो
पर किसी की हो के गिरो
किसी के ग़म में रो के गिरो
कुछ करके गिरो
फिर चाहे भी भरके गिरो!

देवराज दिनेश
मनहर सपनों में खोयी-सी, कुछ-कुछ उदास, कुछ रोयी सी
यह कौन हठीली छत से गिरने को आतुर
कह दो इससे अपने जीवन से प्यार करे
संघर्ष गले का हार करे
विपदाओं में जीना सीखे
जीवन यदि विष है तो उसको, हँसते-हँसते पीना सीखे
कह दो इससे!

बालकवि बैरागी
गौ…री, हे…मरवण…हे
गौरी हे! मरवण हे!
थारी बातों में म्हारी सब बाताँ, थारो सब कुंजी तालो जी
उतरो-उतरो म्हारी मरवण उतरो, घर को काम सँभालो जी
गौरी हे, मरवण हे।

सुरेन्द्र शर्मा
ऐरी के कररी है?
छज्जै से निचै कुद्दै है
तो पहली मंजिल से क्यूँ कुद्दै
चैथी पे जा
जैसे क्यूँ बेरो तो पाट्टै
के कुद्दी थी।






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