हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हें बदनाम - अकबर इलाहाबादी


This is a very popular sher used very often to crib about an unfair situation. It was written by the great shayar Akbar Allahabadi.

हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हें बदनाम

वो क़त्ल भी करते हें तो चर्चा नहीं होता

Here are some more nuggets from him:


This looks like confessions of a window shopper 🙂

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ

बाज़ार से गुज़रा हूँ खरीदार नहीं हूँ


Authorities say - you seem to be enjoying too much freedom 🙂

इतनी आज़ादी भी गनीमत है

साँस लेता हूँ बात करता हूँ


Nice small verses. I really liked the thought behind these. How can you argue about matters of faith or love?

इश्क नाज़ुक मिजाज़ है बेहद

अक्ल का बोझ उठा नहीं सकता

मजहबी बहस मैने की ही नहीं

फालतू अक्ल मुझमे थी ही नहीं

तन्हाई का आलम


 उसके दुश्मन है बहुत आदमी अच्छा होगा,

वो भी मेरी ही तरह शहर मे तन्हा होगा  - बशीर बद्र् 


अच्छा सा कोई मौसम तन्हा सा कोई आलम,

हर वक़्त का रोना भी बेकार का रोना ह - निदा फाज़िली


 तुम नही गम नही शराब नही, 

ऎसी तनहाई का जवाब नही - सईद राही


 न मिट सकेगी ये तन्हाईया मगर ए दोस्त,

जो तू भी हो तो तबियत ज़रा बहल जाये - मजरूह


 मै तन्हा था मै तन्हा हू, 

तुम आओ तो क्या न आओ तो क्या - अलीम