कुछ और भी हैं काम हमें ऐ गम-ए-जाना



Enjoy your Sunday evening with this great shayari from Habib Zalib.

हसरत है कोई गुंचा हमें प्यार से देखे,
अरमान है कोई फूल हमें दिल से पुकारे।

कुछ और भी हैं काम हमें ऐ गम-ए-जाना,
कब तक कोई उलझी हुई जुल्फों को सवारे।

ये और बात तेरी गली में न आये हम,
लेकिन ये क्या के शहर तेरा छोड़ जाये हम।

जिस की खातिर शहर भी छोड़ा,
जिस के लिए बदनाम हुए,
आज वही हमसे बेगाने बेगाने से रहते हैं।

इक इक करके सारे साथी छोड़ गए,
मुझसे मेरे रहबर भी मुंह मोड़ गए,
सोचता हूँ बेकार गिला है गैरो का,
अपने ही जब प्यार का नाता तोड़ गए।




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